तिश्ना-ए-अज़ली
सब में शामिल है
लब-ए-साहिल पे उजले संग-रेज़ो का वजूद
जगमगाती सी जबीनों से
ये अंदाज़ा भी कर सकते हैं
वो मुतमइन से हैं मगर
तिश्नगी का कर्ब
होंटों से बयाँ होता नहीं
आती जाती मौज-ए-दरिया
ये समझती है हमेशा
संग-रेज़े भी हैं उस से फ़ैज़-याब
जब भी छूटी संग-रेज़ो से रिदा-ए-एहतियात
उन की सफ़ पर
धूप का हमला हुआ
तिश्नगी का माजरा रुस्वा हुआ
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