शहर-ए-आरज़ू

कोई बताए कहाँ शहर-ए-आरज़ू होगा

कि जिस मक़ाम पे दामन के चाक सिलते हैं

नई हयात नई सुब्ह-ओ-शाम मिलते हैं

उदास उदास हैं रातें उदास उदास हैं दिन

कटेगी राह कोई दास्ताँ सुनाते चलो

हिकायत-ए-बुत-ए-लाला-ओ-शाँ सुनाते चलो

किसी की ज़ूद-पशीमाँ निगाहियों का तिलिस्म

किसी ख़राब निगाह-ए-करम का ज़िक्र करो

वफ़ा-ए-वादा-ओ-क़ौल-ओ-क़सम का ज़िक्र करो

हर एक आबला-पा और सर-ए-जुनूँ-पेशा

दिलों के काबे में पत्थर सजाए फिरता है

उफ़ुक़ उफ़ुक़ पे निगाहें जमाए फिरता है

उदास हम-सफ़रो सू-ए-दिल भी एक नज़र

उछल रहा है बड़ी देर से लहू अपना

यहीं कहीं न मिले शहर-ए-आरज़ू अपना

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