दरयूज़ा-गरी
नीलगूँ चर्ख़ को घेरे हुए भूरे बादल
इस तरह घूमते फिरते हैं हवा के रुख़ पर
जैसे ये सल्तनत-ए-आब के शहज़ादे हों
जिन के इक हुक्म से हो जाए ज़मीं लाला-फ़रोश
देखना ये है कि कब आस की कोंपल फूटे
सूखी जाती है तमन्नाओं की खेती अपनी
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