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यूँ भी क्या था और अब क्या रह गया - हमीद अलमास कविता - Darsaal

यूँ भी क्या था और अब क्या रह गया

यूँ भी क्या था और अब क्या रह गया

मैं अकेला था अकेला रह गया

हिज्र में है कौन कितना बे-क़रार

लेकिन इन बातों में अब क्या रह गया

मस्लहत काफ़िर थी बाज़ आई नहीं

दिल वो नादाँ था कि रोता रह गया

साक़ी-ए-उम्र-ए-दो-रोज़ा याद रख

मेरी जानिब से तक़ाज़ा रह गया

चारासाज़ो भूल जाऊँगा उसे

अब सुनाओ ज़ख़्म कितना रह गया

ज़िंदगी कुछ इस तरह कटती गई

जैसे कोई हाथ मलता रह गया

भीड़ तन्हाई की छुटती ही नहीं

हर तरफ़ चेहरा ही चेहरा रह गया

मौत क्या आती बिछड़ कर दोस्त से

देख लो 'अलमास' ज़िंदा रह गया

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