साँसों को कर्ब ज़ीस्त ग़म-ए-बे-पनाह को
साँसों को कर्ब ज़ीस्त ग़म-ए-बे-पनाह को
किस किस को मुतमइन मैं करूँ ख़्वाह-मख़ाह को
सूरज के पार देख सको गर मिरी तरह
तब जा के पाओगे मिरी हद्द-ए-निगाह को
मैं इस फ़रेब-गह में वो आदम-गज़ीदा हूँ
ढूँडे है जो अंधेरों में जा-ए-पनाह को
अपना न मैं हुआ तो भला कौन है मिरा
अपनाए क्यूँ कोई किसी गुम-कर्दा-राह को
मैं हादसों की भीड़ में तन्हा खड़ा हुआ
आवाज़ दे रहा हूँ किसी ख़ैर-ख़्वाह को
साया भी हम-क़दम न मिरा हो इसी लिए
ख़ातिर में लाया मैं न किसी इंतिबाह को
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