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साँसों को कर्ब ज़ीस्त ग़म-ए-बे-पनाह को - हमदुन उसमानी कविता - Darsaal

साँसों को कर्ब ज़ीस्त ग़म-ए-बे-पनाह को

साँसों को कर्ब ज़ीस्त ग़म-ए-बे-पनाह को

किस किस को मुतमइन मैं करूँ ख़्वाह-मख़ाह को

सूरज के पार देख सको गर मिरी तरह

तब जा के पाओगे मिरी हद्द-ए-निगाह को

मैं इस फ़रेब-गह में वो आदम-गज़ीदा हूँ

ढूँडे है जो अंधेरों में जा-ए-पनाह को

अपना न मैं हुआ तो भला कौन है मिरा

अपनाए क्यूँ कोई किसी गुम-कर्दा-राह को

मैं हादसों की भीड़ में तन्हा खड़ा हुआ

आवाज़ दे रहा हूँ किसी ख़ैर-ख़्वाह को

साया भी हम-क़दम न मिरा हो इसी लिए

ख़ातिर में लाया मैं न किसी इंतिबाह को

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