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कर्ब वहशत उलझनें और इतनी तन्हाई कि बस - हमदुन उसमानी कविता - Darsaal

कर्ब वहशत उलझनें और इतनी तन्हाई कि बस

कर्ब वहशत उलझनें और इतनी तन्हाई कि बस

जाने क्यूँ तक़दीर ने ली ऐसी अंगड़ाई कि बस

जब कभी भूले से भी आईना देखा तेरे बा'द

अपनी ही सूरत में वो सूरत नज़र आई कि बस

तोड़ने जब भी चला ज़िंदान-ए-आब-ओ-गिल को मैं

जानी-पहचानी हुई आवाज़ इक आई कि बस

चिलचिलाती धूप ग़म की हादसों के साएबाँ

सोच का तपता ये सहरा और ये पुर्वाई कि बस

काश ना-बीना ही रहता इस मुक़ार-ख़ाना में

तोहफ़तन दुनिया ने दी है ऐसी बीनाई कि बस

नोचती कब तक रहेंगी यूँ बरहना ख़्वाहिशें

ता-ब-कै होती रहेगी ऐसी रुस्वाई कि बस

मैं हूँ ऐ 'हमदून' इक ज़िंदा गिरफ़्तार-ए-लहद

अपनी ही तक़दीर से ठोकर वो है खाई कि बस

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