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यक़ीन कैसे करूँगा गुमाँ में रहता हूँ - हमदम कशमीरी कविता - Darsaal

यक़ीन कैसे करूँगा गुमाँ में रहता हूँ

यक़ीन कैसे करूँगा गुमाँ में रहता हूँ

चराग़ हूँ किसी अंधे मकाँ में रहता हूँ

चहार सम्त उजाला है मेरे होने से

मैं हर तरफ़ हूँ मगर दरमियाँ में रहता हूँ

मुझे तलाश करो मुझ से गुफ़्तुगू कर लो

में अपने हर्फ़ में अपने बयाँ में रहता हूँ

हक़ीर सा मिरा किरदार है कहानी में

मिसाल-ए-गर्द कहीं कारवाँ में रहता हूँ

सदा भी अपनी ही आती है मेरे कानों में

जहाँ भी रहता हूँ अपने गुमाँ में रहता हूँ

न सुब्ह कोई यहाँ और न शाम है अपनी

किसी से कैसे कहूँगा कहाँ मैं रहता हूँ

न बाम-ओ-दर हैं ना दीवार है कोई जिस की

मैं आज-कल किसी ऐसे मकाँ में रहता हूँ

मुझे भी याद करेगा कभी कोई 'हमदम'

कहीं तो मैं भी किसी दास्ताँ में रहता हूँ

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