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वहम कोई गुमाँ में था ही नहीं - हमदम कशमीरी कविता - Darsaal

वहम कोई गुमाँ में था ही नहीं

वहम कोई गुमाँ में था ही नहीं

नक़्श अपना निशाँ में था ही नहीं

मुझ से मंसूब हो गया क्यूँ कर

वो जो मेरे बयाँ में था ही नहीं

लोग कैसे मिरा यक़ीं करते

झूट मेरे बयाँ में था ही नहीं

चोर आया गया भी ख़ाली हाथ

मैं तो अपने मकाँ में था ही नहीं

बस पुरानी घिसी-पिटी बातें

रंग ताज़ा बयाँ में था ही नहीं

फीकी फीकी बहार गुज़री है

रंग अपना ख़िज़ाँ में था ही नहीं

हम ने सुन कर भी अन-सुनी कर दी

कुछ तअस्सुर अज़ाँ में था ही नहीं

मेरे सर के लिए जो हो मौज़ूँ

संग वो आस्ताँ में था ही नहीं

देर से ख़ामुशी है ख़ेमा-ज़न

शोर क्या कारवाँ में था ही नहीं

आ रहा था ज़मीन की जानिब

वसवसा आसमाँ में था ही नहीं

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