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एक क़तरा न कहीं ख़ूँ का बहा मेरे बअ'द - हमदम कशमीरी कविता - Darsaal

एक क़तरा न कहीं ख़ूँ का बहा मेरे बअ'द

एक क़तरा न कहीं ख़ूँ का बहा मेरे बअ'द

ज़ंग-आलूद हुई तेग़-ए-जफ़ा मेरे बअ'द

क्यूँ हर इक मोड़ पे होता है घुटन का एहसास

तंग क्यूँ होने लगी मेरी फ़ज़ा मेरे बअ'द

देखते देखते ही माँद पड़े शम्स-ओ-क़मर

ख़ुद से बेज़ार हुए सुब्ह-ओ-मसा मेरे बअ'द

हर तरफ़ ज़र्दी-ए-रुख़्सार नज़र आती है

कहीं रौशन न मिला रंग-ए-हिना मेरे बअ'द

रुक गया क़ाफ़िला-ए-उम्र-ए-सुबुक-रौ शायद

देख ख़ामोश है आवाज़-ए-दरा मेरे बअ'द

ज़िंदगी भर न किया याद किसी ने और अब

पूछते हैं वो मेरे घर का पता मेरे बअ'द

उम्र भर उस को सँभाले हुए रक्खा मैं ने

गिर न जाए कहीं दीवार-ए-अना मेरे बअ'द

अब भी क्या इस में है आबाद स्याही 'हमदम'

मेरे वीराने का क्या हाल हुआ मेरे बअ'द

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