पत्थरो आज मिरे सर पे बरसते क्यूँ हो
मैं ने तुम को भी कभी अपना ख़ुदा रक्खा है
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ज़िंदगी को न बना लें वो सज़ा मेरे बाद
जब भी जलेगी शम्अ तो परवाना आएगा
इस राह-ए-मोहब्बत में तो आज़ार मिले हैं
घर में जो इक चराग़ था तुम ने उसे बुझा दिया
जब से तू ने मुझे दीवाना बना रक्खा है
आसान किस क़दर है समझ लो मिरा पता
वो मुझे छोड़ के इक शाम गए थे 'नासिर'
मय-कशी गर्दिश-ए-अय्याम से आगे न बढ़ी
वो जो कहता था कि 'नासिर' के लिए जीता हूँ
आँखों ने हाल कह दिया होंट न फिर हिला सके
कभी वो हाथ न आया हवाओं जैसा है