दो घड़ी दर्द ने आँखों में भी रहने न दिया
हम तो समझे थे बनेंगे ये सहारे आँसू
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वो जो कहता था कि 'नासिर' के लिए जीता हूँ
ये तमाशा भी अजब है उन के उठ जाने के बाद
आप क्या आए कि रुख़्सत सब अंधेरे हो गए
ये दर्द है हमदम उसी ज़ालिम की निशानी
आसान किस क़दर है समझ लो मिरा पता
मय-कशी गर्दिश-ए-अय्याम से आगे न बढ़ी
जब भी जलेगी शम्अ तो परवाना आएगा
पत्थरो आज मिरे सर पे बरसते क्यूँ हो
उस के दिल पर भी कड़ी इश्क़ में गुज़री होगी
वो मुझे छोड़ के इक शाम गए थे 'नासिर'