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सारे चेहरे ताँबे के हैं लेकिन सब पर क़लई है - हकीम मंज़ूर कविता - Darsaal

सारे चेहरे ताँबे के हैं लेकिन सब पर क़लई है

सारे चेहरे ताँबे के हैं लेकिन सब पर क़लई है

मोहमल ताबा-ए-मोहमल क्या है दोनों का इक मा'नी है

मानते हैं आप इस के क़द में उस का क़द शामिल ही न था

आगे हम क्यूँ बहसें साहब इतनी बात ही काफ़ी है

धान के खेतों का सब सोना किस ने चुराया कौन कहे

बे-मौसम बे-फ़स्ल अभी तक इस इज़हार की धरती है

अंदेशे अंदाज़े बन कर मेरे सफ़र के ख़्वाब बने

हर बस्ती में आ कर सोचा शायद आगे बस्ती है

उस की सदा से गूँगे लम्हे पायल जैसे बजते हैं

बच्चों जैसा ख़ुश होता हूँ जब भी बारिश होती है

बे-मश्शाता हुस्न की गाँव गाँव था वो कहाँ गया

बेद के साया-ज़ारों ने कब पहचान अपनी खोई है

मालिक सात समुंदरों की वुसअ'त का हूँ मैं लेकिन

मेरा दिल क्यूँ भर आता है जब कोई नद्दी सूखती है

अपने आप से मैं शर्मिंदा होता जो मुजरिम होता

मेरे बारे में ये दुनिया कहने दो जो कहती है

मंज़ूर अपने दस्त-ए-तही को देख के तुझ से पूछे क्यूँ

हर्फ़-ए-सुख़न इक तेरे सिवा है कौन सी शय जो सस्ती है

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