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मेरे सामने मेरे घर का पूरा नक़्शा बिखरा है - हकीम मंज़ूर कविता - Darsaal

मेरे सामने मेरे घर का पूरा नक़्शा बिखरा है

मेरे सामने मेरे घर का पूरा नक़्शा बिखरा है

काश कोई ऐसा होता जो देखे क्या क्या बिखरा है

मैं ने चाहा बीते बरसों को भी मुट्ठी में भर लूँ

इस कोशिश में मेरे आज का लम्हा लम्हा बिखरा है

पहले उस के साए के रसिया लोग थे अब ये कहते हैं

ये भी कोई पेड़ है जिस का पत्ता पत्ता बिखरा है

शायद ऐसे ही बे-मंज़िल रहना अपनी क़िस्मत है

हम किस रस्ते को अपनाएँ हर इक रस्ता बिखरा है

इस की क्या ताबीर करूँ मैं कुछ तू ही समझा 'मंज़ूर'

मैं ने ख़्वाब में देखा सहरा में इक दरिया बिखरा है

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