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ख़ुशबुओं की दश्त से हमसायगी तड़पाएगी - हकीम मंज़ूर कविता - Darsaal

ख़ुशबुओं की दश्त से हमसायगी तड़पाएगी

ख़ुशबुओं की दश्त से हमसायगी तड़पाएगी

जिस को भी हासिल हुई ये आगही तड़पाएगी

रौशनी को गुंग होते जिस ने देखा हो कभी

किस हवाले से उसे तीरा-शबी तड़पाएगी

काढ़ता था मैं ही संग-ए-सख़्त पर रेशम से फूल

क्या ख़बर थी ये नज़र शाइस्तगी तड़पाएगी

ख़्वाब थे पायाब इस का दुख नहीं कब थी ख़बर

मुझ को ताबीरों की इक बे-क़ामती तड़पाएगी

मैं न कहता था कि शो'लों से न करना दोस्ती

मैं न कहता था कि ये दरिया-दिली तड़पाएगी

ज़ाविया-दर-ज़ाविया मंज़र बदलते जाएँगे

आँख सारी आँख भर ये ज़िंदगी तड़पाएगी

नग़्मे चुप हैं और रुत भी कह रही है चुप रहो

किस को अब दिल की ये ना-आसूदगी तड़पाएगी

और इक दिन दश्त बादल से चुराएँगे नज़र

और मुझ को इस की ये बे-ख़ानगी तड़पाएगी

कुछ न कुछ 'मंज़ूर' दिल से राब्ता रह जाएगा

उस को मुझ से दोस्ती या दुश्मनी तड़पाएगी

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