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ख़ुद अपने-आप से मिलने का मैं अपना इरादा हूँ - हकीम मंज़ूर कविता - Darsaal

ख़ुद अपने-आप से मिलने का मैं अपना इरादा हूँ

ख़ुद अपने-आप से मिलने का मैं अपना इरादा हूँ

मैं हर मौसम को सह कर भी अभी तक ईस्तादा हूँ

अज़ल से मावरा रंगों से हूँ ये मेरा दावा है

असास-ए-रंग पर जाँचो न मुझ को नक़्श-ए-सादा हूँ

तिरा साया है आईना चमकते आफ़्ताबों का

मैं अपने जिस्म में बे-पैकरी का इक लबादा हूँ

मुझे हैरत, मैं इक नुक़्ते की सूरत किस तरह सिमटा

ख़ला है आँख मेरी मैं समुंदर से कुशादा हूँ

मुझे लगती है दुनिया एक ठोकर अपने पाँव की

मैं जाने कैसी उजड़ी सल्तनत का शाहज़ादा हूँ

मुझे लगते हैं ख़ुश सब सेब सूरत आज भी 'मंज़ूर'

कि मैं अपने किसी अहद-ए-शिकस्ता का इआदा हूँ

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