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कब इस ज़मीं की सम्त समुंदर पलट कर आए - हकीम मंज़ूर कविता - Darsaal

कब इस ज़मीं की सम्त समुंदर पलट कर आए

कब इस ज़मीं की सम्त समुंदर पलट कर आए

इज़हार-ए-अव्वलीं का वो मंज़र पलट कर आए

जब हर्फ़ लिख दिया है तो क्यूँ मुश्तहर न हो

निकला कमाँ से तीर तो क्यूँकर पलट कर आए

हो सारे शहर में ये मुनादी कि जश्न हो

अपनी ही सफ़ में हारे दिलावर पलट कर आए

या बे-ख़बर थे वुसअ'त-दरिया-ए-रंग से

या चश्म-ए-बे-हुनर थे शनावर पलट कर आए

बाज़ार पुर-हुजूम ख़रीदार कम-सवाद

चुप-चाप ले के अपने गुल-ए-तर पलट कर आए

इतने बख़ील पेड़ न देखे थे आज तक

बे-फ़स्ल बे-समर मिरे पत्थर पलट कर आए

असनाम का हुजूम कभी इस क़दर न था

इन वादियों में कौन से आज़र पलट कर आए

क्या इक खुला फ़ुसूँ है शफ़क़ रंग दोपहर

क्या रात हो गई है कि शहपर पलट कर आए

'मंज़ूर' फिर ज़मीं पे उजाला हो एक बार

काश एक बार फिर वो पयम्बर पलट कर आए

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