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हो आँख अगर ज़िंदा गुज़रती है न क्या क्या - हकीम मंज़ूर कविता - Darsaal

हो आँख अगर ज़िंदा गुज़रती है न क्या क्या

हो आँख अगर ज़िंदा गुज़रती है न क्या क्या

यूँ आब में बुझते हुए शो'ले की सदा क्या

ऐ तू कि यक़ीं है तुझे शीशे के बदन पर

एहसास की दस्तक पर कभी कान धरा क्या

दीवार तही नक़्श हर इक रंग से मायूस

काग़ज़ के लिए मू-ए-क़लम संग बचा क्या

महफ़ूज़ हमीं रेग-हिसारों में हुए थे

क्या वर्ना समुंदर का गुज़र मौज-ए-हवा क्या

वो शख़्स मिरे साए से रखता है तअ'ल्लुक़

मेरा ही यक़ीं टूट गया उस का गया क्या

उस बर्फ़ के इंसान की तख़्लीक़ मिरी थी

इस धूप की नगरी में मिले उस का पता क्या

ख़ुद तीर हदों में हों अभी सच है ये 'मंज़ूर'

उस चश्म-गिरफ़्तार को मानूँगा ख़ुदा क्या

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