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है इज़्तिराब हर इक रंग को बिखरने का - हकीम मंज़ूर कविता - Darsaal

है इज़्तिराब हर इक रंग को बिखरने का

है इज़्तिराब हर इक रंग को बिखरने का

कि आफ़्ताब नहीं रात भर ठहरने का

मुजस्समे की तरह मौसमों को सहता है

वो मुंतज़िर है कोई हादसा गुज़रने का

लटकते सूखते ये नक़्श यूँही रोएँगे

गुज़र गया है जो मौसम था रंग भरने का

वो आइने से अगर हो गया है बे-परवा

जवाज़ क्या है उसे फिर किसी से डरने का

गिरेगी कल भी यही धूप और यही शबनम

इस आसमाँ से नहीं और कुछ उतरने का

अब आग आग है नीले पहाड़ का मंज़र

हमें था शौक़ बहुत उस के पार उतरने का

अगरचे उस की हर इक बात खुरदुरी है बहुत

मुझे पसंद है ढंग उस के बात करने का

दिया है जिस ने भी चुप का शराप लफ़्ज़ों को

उसे ख़बर है नहीं लफ़्ज़ कोई मरने का

हमें ख़बर है हमारे सफ़र की ऐ 'मंज़ूर'

कहेंगे हम ही न है रास्ता सँवरने का

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