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छोड़ कर मुझ को कहीं फिर उस ने कुछ सोचा न हो - हकीम मंज़ूर कविता - Darsaal

छोड़ कर मुझ को कहीं फिर उस ने कुछ सोचा न हो

छोड़ कर मुझ को कहीं फिर उस ने कुछ सोचा न हो

मैं ज़रा देखूँ वो अगले मोड़ पर ठहरा न हो

मैं भी इक पत्थर लिए था बुज़दिलों की भीड़ में

और अब ये डर है उस ने मुझ को पहचाना न हो

हम किसी बहरूपिए को जान लें मुश्किल नहीं

उस को क्या पहचानिये जिस का कोई चेहरा न हो

उस को अल्फ़ाज़-ओ-मआनी का तसादुम खा गया

अब वो यूँ चुप है कि जैसे मुद्दतों बोला न हो

दन्दनाता यूँ फिरे है शहर की सड़कों पे वो

जैसे पूरे शहर में कोई भी आईना न हो

लोग कहते हैं अभी तक है वो सरगर्म-ए-सफ़र

मुझ को अंदेशा कहीं वो राह में सोया न हो

मुझ को ऐ 'मंज़ूर' यूँ महसूस होता है कभी

जैसे सब अपने हों जैसे कोई भी अपना न हो

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