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बयाबाँ-ज़ाद कोई क्या कहे ख़ुद बे-मकाँ है - हकीम मंज़ूर कविता - Darsaal

बयाबाँ-ज़ाद कोई क्या कहे ख़ुद बे-मकाँ है

बयाबाँ-ज़ाद कोई क्या कहे ख़ुद बे-मकाँ है

समुंदर ऐ समुंदर तेरा अपना घर कहाँ है

वफ़ा का अहद क्या बाँधूँ अभी ऐ दस्त-ए-ख़ुशबू

अभी बादल हिना-पा है अभी सूरज जवाँ है

अजब अफ़्सूँ-सिफ़त सारा न छुप कर है न ज़ाहिर

जज़ीरा ऐसा सोया है वो दरिया सा रवाँ है

हवा है मुन्हरिफ़ ख़ुद अपनी ही तहरीर से क्यूँ

हक़ीक़त क्या यही है वो भी बिल्कुल बे-अमाँ है

सवाल ऐसा कि इस का लब हिलाना भी था मुश्किल

ये पूछा था कि ख़ुशबू बस्ता है या रवाँ है

कोई तो हम-सुख़न होता कि उस से बात करते

बताते खुल के वो क्या लफ़्ज़ है जो बे-बयाँ है

मिरे पास आ कभी ऐ लम्हा-ए-हर्फ़-ए-मसर्रत

कि मैं भी देख लूँ आख़िर तू कितना ख़ुश-ज़बाँ है

हवा का हाथ क्या आतिश-ए-बदन है जो सफ़-ए-गुल

हो मौसम कोई भी ये तो वही शो'ला-ब-जाँ है

जो सब कुछ देख कर भी देखने देता नहीं कुछ

कहूँ 'मंज़ूर' क्या आँखों में ये कैसा धुआँ है

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