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अज़िय्यतों को किसी तरह कम न कर पाया - हकीम मंज़ूर कविता - Darsaal

अज़िय्यतों को किसी तरह कम न कर पाया

अज़िय्यतों को किसी तरह कम न कर पाया

में अपने हाथ अभी तक क़लम न कर पाया

हवाले लाख दलील एक भी न दे शायद

नज़र में क्यूँ किसी मंज़र को ज़म न कर पाया

है बे-तराश अभी दस्त-ए-ज़ेहन में इक नक़्श

कि इस के रंग को मैं हम-क़लम न कर पाया

है शर्म तिश्ना-लबी उस की जिस से बुझ जाती

में इतना ख़ून-ए-जिगर क्यूँ बहम न कर पाया

तही-समर मिरे दामन को ही ठहरना था

मैं मौसमों के क़सीदे रक़म न कर पाया

तरावतों से भरा लफ़्ज़ दर्स है जिस का

इसी से ख़ुद को अभी तक वो कम न कर पाया

सवाल-संग था सरज़द प था मिरा मंज़ूर

मैं चुप रहा कि मैं ख़ुद पर सितम न कर पाया

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