अजब सहरा बदन पर आब का इबहाम रक्खा है
अजब सहरा बदन पर आब का इबहाम रक्खा है
ये किस ने इस समुंदर का समुंदर नाम रक्खा है
वही इक दिन शहादत देगा मेरी बे-गुनाही की
वो जिस ने क़त्ल-ए-गुल का मेरे सर इल्ज़ाम रक्खा है
मैं तुम से पूछता हूँ झील-डल की बे-ज़बाँ मौजो
तह-ए-दामन छुपा कर तुम ने क्या पैग़ाम रक्खा है
कभी बादल मेरे आँगन उतरता पूछता मैं भी
कुहिस्ताँ पर बरसना किस ने तेरा काम रक्खा है
रहा होगा वो कितना दिल ग़नी दस्त-ए-सख़ी जिस ने
जुनूँ की मुम्लिकत का एक पत्थर दाम रक्खा है
यही ना फूल से बिछड़े तो आवारा हों सहरा में
कहूँ क्या किस ने ख़ुश्बूओं का ये अंजाम रखा है
मुझे मंज़ूर वो अक़दार भी रद्द सब करें जिन को
किसी ने सोच कर 'मंज़ूर' मेरा नाम रखा है
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