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आगे पीछे उस का अपना साया लहराता रहा - हकीम मंज़ूर कविता - Darsaal

आगे पीछे उस का अपना साया लहराता रहा

आगे पीछे उस का अपना साया लहराता रहा

ख़ौफ़ से उस शख़्स का चेहरा सदा पीला रहा

सुब्ह को देखा तो वो मुझ से था बिल्कुल अजनबी

रात भर जो जिस्म के अंदर मुझे तकता रहा

कैसा दीवाना था सब कुछ जान कर अंजान था

हर किसी से वो गले मिलता रहा रोता रहा

ये ख़ता मेरी थी तुझ को मैं ने पहचाना नहीं

आईने में जाने मुझ को क्या नज़र आता रहा

ख़ुद-नुमाई के लिए तरकीब थी अच्छी बहुत

लोग सब ख़ामोश थे वो कुछ न कुछ कहता रहा

हम ने दीवारों पे उस को कर दिया चस्पाँ मगर

अपने घर में वो बड़े आराम से सोया रहा

सब बरहना-तन हुए 'मंज़ूर' जब महफ़िल की जाँ

अपने घर में छुप के ख़ामोशी से मैं बैठा रहा

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