हकीम मंज़ूर कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का हकीम मंज़ूर
नाम | हकीम मंज़ूर |
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अंग्रेज़ी नाम | Hakeem Manzoor |
तुझ पे खुल जाएँगे ख़ुद अपने भी असरार कई
तेरी आँखों में आँसू भी देखे हैं
शहर के आईन में ये मद भी लिक्खी जाएगी
रेज़ा रेज़ा रात भर जो ख़ौफ़ से होता रहा
न जाने किस लिए रोता हूँ हँसते हँसते मैं
मुझ में थे जितने ऐब वो मेरे क़लम ने लिख दिए
जो मेरे पास था सब लूट ले गया कोई
इतना बदल गया हूँ कि पहचानने मुझे
हम किसी बहरूपिए को जान लें मुश्किल नहीं
हर एक आँख को कुछ टूटे ख़्वाब दे के गया
गिरेगी कल भी यही धूप और यही शबनम
देखते हैं दर-ओ-दीवार हरीफ़ाना मुझे
छोड़ कर बार-ए-सदा वो बे-सदा हो जाएगा
बाग़ में होना ही शायद सेब की पहचान थी
अपनी नज़र से टूट कर अपनी नज़र में गुम हुआ
अगरचे उस की हर इक बात खुरदुरी है बहुत
वो जो अब तक लम्स है उस लम्स का पैकर बने
टूट कर बिखरे न सूरज भी है मुझ को डर बहुत
सारे मामूलात में इक ताज़ा गर्दिश चाहिए
सारे चेहरे ताँबे के हैं लेकिन सब पर क़लई है
सफ़र ही कोई रहेगा न फ़ासला कोई
फूल हो कर फूल को क्या चाहना
मुंतशिर सायों का है या अक्स-ए-बे-पैकर का है
मिरे वजूद की दुनिया में है असर किस का
मेरे सामने मेरे घर का पूरा नक़्शा बिखरा है
कुछ समझ आया न आया मैं ने सोचा है उसे
कोई पयाम अब न पयम्बर ही आएगा
ख़ुशबुओं की दश्त से हमसायगी तड़पाएगी
ख़ुद अपने-आप से मिलने का मैं अपना इरादा हूँ
कब इस ज़मीं की सम्त समुंदर पलट कर आए