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बहिश्त-ए-बरीँ - हाजी लक़ लक़ कविता - Darsaal

बहिश्त-ए-बरीँ

ख़ुदा से दुआ बहर-ए-दुनिया करेंगे

ग़लत है कि हम फ़िक्र-ए-उक़्बा करेंगे

बड़े हो के कौंसिल में जाया करेंगे

तो दिल से ये इक़रार पक्का करेंगे

कि जन्नत की ख़ातिर न झगड़ा करेंगे

बहिश्त-ए-बरीँ ले के हम क्या करेंगे

बहिश्त-ए-बरीँ क्या है बस एक गुलशन

फ़रिश्तों का दीदार हूरों के दर्शन

हर इक जन्नती बे-हुनर और बे-फ़न

न बज़्म-ए-अदब और न रेडियो-स्टेशन

कहाँ हम ग़ज़ल अपनी गाया करेंगे

बहिश्त-ए-बरीँ ले के हम क्या करेंगे

न सामाँ वहाँ कोई वजह-ए-मसर्रत

न इश्क़-ओ-मोहब्बत की वाँ कोई सूरत

डिनर-सूट किस वक़्त पहना करेंगे

बहिश्त-ए-बरीँ ले के हम क्या करेंगे

फ़क़त ख़ुश्क मुल्ला और अल्लाहु-अकबर

परे ज़ाहिदों के सर-ए-हौज़-ए-कौसर

न घोड़ा न गाड़ी न तांगा न मोटर

न शिमला पहाड़ी न सिनेमा न थेटर

कहाँ शाम अपनी गुज़ारा करेंगे

बहिश्त-ए-बरीँ ले के हम क्या करेंगे

सुना है वहाँ शाइरी भी न होगी

और उश्शाक़ की बे-कली भी न होगी

बला से जो ये दिल-लगी भी न होगी

सितम तो ये है लांडरी भी न होगी

कहाँ अपने कपड़े धुलाया करेंगे

बहिश्त-ए-बरीँ ले के हम क्या करेंगे

वहाँ होंगे बेकार क़िर्तास ओ ख़ामा

न पैग़ाम-ए-उल्फ़त न मक्तूब-नामा

न नॉवेल-नवेसी न शेर और डरामा

फ़क़त हाथ में होगा इक पाएजामा

सिएँगे उसे और उधेड़ा करेंगे

बहिश्त-ए-बरीँ ले के हम क्या करेंगे

ज़बाँ भी वहाँ होगी अहल-ए-अरब की

यहाँ हम ने सीखी है इंग्लिश ग़ज़ब की

ज़बाँ कैसे हूरों की समझा करेंगे

बहिश्त-ए-बरीँ ले के हम क्या करेंगे

हक़ीक़त को जन्नत की हम ख़ाक जानें

कि उतनी ही बातें हैं जितनी ज़बानें

मगर आप इस बात को रास्त मानें

न होंगी कहीं साड़ियों की दुकानें

ये माना कि जन्नत में है ख़ूब रौनक़

खिले हैं चम्बेली गुलाब और ज़म्बक़

मगर होगा अपने लिए वो लक़-ओ-दक़

नहीं होंगे उस में कभी हाजी 'लक़-लक़'

फ़रिश्ते हमें कब हँसाया करेंगे

बहिश्त-ए-बरीँ ले के हम क्या करेंगे

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