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हर चोट पर ज़माने की हम मुस्कुराए हैं - हैरत सहरवर्दी कविता - Darsaal

हर चोट पर ज़माने की हम मुस्कुराए हैं

हर चोट पर ज़माने की हम मुस्कुराए हैं

लेकिन तिरे ख़याल में आँसू बहाए हैं

हद को पहुँच गई है मिरी ना-मर्दीयाँ

मंज़िल के पास आ के क़दम डगमगाए हैं

ऐ ज़ुल्फ़-ए-काएनात तुझे क्या ख़बर कि हम

किन पेच ओ ख़म से छुट के तिरे पास आए हैं

ऐ जान-ए-काएनात तिरे इंतिज़ार में

हम ने कई चराग़ जलाए बुझाए हैं

जो चल पड़े थे अज़्म-ए-सफ़र ले के थक गए

जो लड़खड़ा रहे थे वो मंज़िल पे आए हैं

'हैरत' निज़ाम-ए-कोहना की तारीकियों में भी

हम ने निज़ाम-ए-ताज़ा के दीपक जलाए हैं

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