रख के मुँह सो गए हम आतिशीं रुख़्सारों पर
दिल को था चैन तो नींद आ गई अँगारों पर
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सिवाए रंज कुछ हासिल नहीं है इस ख़राबे में
रुख़ ओ ज़ुल्फ़ पर जान खोया किया
फ़रेब-ए-हुस्न से गब्र-ओ-मुसलमाँ का चलन बिगड़ा
न पाक होगा कभी हुस्न ओ इश्क़ का झगड़ा
शहर में क़ाफ़िया-पैमाई बहुत की 'आतिश'
बला-ए-जाँ मुझे हर एक ख़ुश-जमाल हुआ
वो नाज़नीं ये नज़ाकत में कुछ यगाना हुआ
ताज़ा हो दिमाग़ अपना तमन्ना है तो ये है
दौलत-ए-हुस्न की भी है क्या लूट
सर शम्अ साँ कटाइए पर दम न मारिए
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
चमन में रहने दे कौन आशियाँ नहीं मा'लूम