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ज़िंदे वही हैं जो कि हैं तुम पर मरे हुए - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

ज़िंदे वही हैं जो कि हैं तुम पर मरे हुए

ज़िंदे वही हैं जो कि हैं तुम पर मरे हुए

बाक़ी जो हैं सो क़ब्र में मुर्दे भरे हुए

मस्त-ए-अलस्त क़ुल्ज़ुम-ए-हस्ती में आए हैं

मिस्ल-ए-हबाब अपना पियाला भरे हुए

अल्लाह-रे सफा-ए-तन-ए-नाज़नीन-ए-यार

मोती हैं कूट कूट के गोया भरे हुए

दो दिन से पाँव जो नहीं दबवाए यार ने

बैठे हैं हाथ हाथ के ऊपर धरे हुए

इन अब्रूओं के हल्क़ा में वो अँखड़ियाँ नहीं

दो ताक़ पर हैं दो गुल-ए-नर्गिस धरे हुए

ब'अद-ए-फ़ना भी आएगी मुझ मस्त को न नींद

बे-ख़िश्त-ए-ख़म लहद में सिरहाने धरे हुए

निकलें जो अश्क बे-असर आँखों से क्या अजब

पैदा हुए हैं तिफ़्ल हज़ारों मरे हुए

लिक्खे गए बयाज़ों में अशआर-ए-इंतिख़ाब

राइज रहे वही कि जो सिक्के खरे हुए

उल्टा सफ़ों को तेग़ ने अबरू-ए-यार की

तीर-ए-मिज़ा से दरहम-ओ-बरहम परे हुए

'आतिश' ख़ुदा ने चाहा तो दरिया-ए-इश्क़ में

कूदे जो अब की हम तो वरे से परे हुए

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