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ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते

ये आरज़ू थी तुझे गुल के रू-ब-रू करते

हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तुगू करते

पयाम्बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ

ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरज़ू करते

मिरी तरह से मह-ओ-मेहर भी हैं आवारा

किसी हबीब की ये भी हैं जुस्तुजू करते

हमेशा रंग-ए-ज़माना बदलता रहता है

सफ़ेद रंग हैं आख़िर सियाह मू करते

लुटाते दौलत-ए-दुनिया को मय-कदे में हम

तिलाई साग़र-ए-मय नुक़रई सुबू करते

हमेशा मैं ने गरेबाँ को चाक चाक किया

तमाम उम्र रफ़ूगर रहे रफ़ू करते

जो देखते तिरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम

असीर होने की आज़ाद आरज़ू करते

बयाज़-ए-गर्दन-ए-जानाँ को सुब्ह कहते जो हम

सितारा-ए-सहरी तकमा-ए-गुलू करते

ये का'बे से नहीं बे-वज्ह निस्बत-ए-रुख़-ए-यार

ये बे-सबब नहीं मुर्दे को क़िबला-रू करते

सिखाते नाला-ए-शब-गीर को दर-अंदाज़ी

ग़म-ए-फ़िराक़ का उस चर्ख़ को अदू करते

वो जान-ए-जाँ नहीं आता तो मौत ही आती

दिल-ओ-जिगर को कहाँ तक भला लहू करते

न पूछ आलम-ए-बरगश्ता-तालई 'आतिश'

बरसती आग जो बाराँ की आरज़ू करते

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