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यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया

यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया

रात भर ताला'-ए-बेदार ने सोने न दिया

ख़ाक पर संग-ए-दर-ए-यार ने सोने न दिया

धूप में साया-ए-दीवार ने सोने न दिया

शाम से वस्ल की शब आँख न झपकी ता-सुब्ह

शादी-ए-दौलत-ए-दीदार ने सोने न दिया

एक शब बुलबुल-ए-बेताब के जागे न नसीब

पहलु-ए-गुल में कभी ख़ार ने सोने न दिया

जब लगी आँख कराहा ये कि बद-ख़्वाब किया

नींद भर कर दिल-ए-बीमार ने सोने न दिया

दर्द-ए-सर शाम से उस ज़ुल्फ़ के सौदे में रहा

सुब्ह तक मुझ को शब-ए-तार ने सोने न दिया

रात भर कीं दिल-ए-बेताब ने बातें मुझ से

रंज ओ मेहनत के गिरफ़्तार ने सोने न दिया

सैल-ए-गिर्या से मिरी नींद उड़ी मर्दुम की

फ़िक्र-ए-बाम-ओ-दर-ओ-दीवार ने सोने न दिया

बाग़-ए-आलम में रहीं ख़्वाब की मुश्ताक़ आँखें

गर्मी-ए-आतिश-ए-गुलज़ार ने सोने न दिया

सच है ग़म-ख़्वारी-ए-बीमार अज़ाब-ए-जाँ है

ता-दम-ए-मर्ग दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया

तकिया तक पहलू में उस गुल ने न रक्खा 'आतिश'

ग़ैर को साथ कभी यार ने सोने न दिया

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