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वो नाज़नीं ये नज़ाकत में कुछ यगाना हुआ - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

वो नाज़नीं ये नज़ाकत में कुछ यगाना हुआ

वो नाज़नीं ये नज़ाकत में कुछ यगाना हुआ

जो पहनी फूलों की बध्धी तो दर्द-ए-शाना हुआ

शहीद नाज़-ओ-अदा का तिरे ज़माना हुआ

उड़ाया मेहंदी ने दिल चोर का बहाना हुआ

शब उस के अफ़ई-ए-गेसू का जो फ़साना हुआ

हवा कुछ ऐसी बंधी गुल चराग़-ए-ख़ाना हुआ

न ज़ुल्फ़-ए-यार का ख़ाका भी कर सका मानी

हर एक बाल में क्या क्या न शाख़साना हुआ

तवंगरों को मुबारक हो शम-ए-काफ़ूरी

क़दम से यार के रौशन ग़रीब-ख़ाना हुआ

गुनाहगार हैं मेहराब-ए-तेग़ के साजिद

झुकाया सर तो अदा फ़र्ज़-ए-पंज-गाना हुआ

ग़ुरूर-ए-इश्क़ ज़ियादा ग़ुरूर-ए-हुस्न से है

इधर तो आँख भरी दम उधर रवाना हुआ

दिखा दे ज़ाहिद-ए-मग़रूर को भी ऐ सनम आँख

जमाल-ए-हूर का हद से सिवा फ़साना हुआ

भरा है शीशा-ए-दिल को नई मोहब्बत से

ख़ुदा का घर था जहाँ वाँ शराब-ख़ाना हुआ

हवाए तुंद न छोड़े मिरे ग़ुबार का साथ

ये गर्द-ए-राह कहाँ ख़ाक-ए-आस्ताना हुआ

ख़ुदा के वास्ते कर यार चीन-ए-अबरू दूर

बड़ा ही ऐब लगा जिस कमाँ में ख़ाना हुआ

हुआ जो दिन तो हुआ उस को पास रुस्वाई

जो रात आई तो फिर नींद का बहाना हुआ

न पूछ हाल मिरा चोब-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा हूँ

लगा के आग मुझे कारवाँ रवाना हुआ

निगाह-ए-नाज़-ए-बुताँ से न चशम-ए-रहम भी रख

किसी का यार नहीं फ़ित्ना-ए-ज़माना हुआ

असर किया तपिश-ए-दिल ने आख़िर उस को भी

रक़ीब से भी मिरा ज़िक्र ग़ाएबाना हुआ

हवाए तुंद से पत्ता अगर कोई खड़का

समंद-ए-बाद-ए-बहारी का ताज़ियाना हुआ

ज़बान-ए-यार ख़मोशी ने मेरी खुलवाई

मैं क़ुफ़्ल बन के कलीद-ए-दर-ए-ख़ज़ाना हुआ

किया जो यार ने कुछ शग़्ल-ए-बर्क़-अंदाज़ी

चराग़-ए-ज़िंदगी-ए-ख़िज़र तक निशाना हुआ

रहा है चाह-ए-ज़क़न में मिरा दिल-ए-वहशी

कुएँ में जंगली कबूतर का आशियाना हुआ

ख़ुदा दराज़ करे उम्र-ए-चर्ख़-ए-नीली को

ये बे-कसों के मज़ारों का शामियाना हुआ

नहीं है मिस्ल-ए-सदफ़ मुझ सा दूसरा कम-बख़्त

नसीब-ए-ग़ैर मिरे मुँह का आब-ओ-दाना हुआ

हिनाई हाथों से चोटी को खोलता है यार

कहाँ से पंजा-ए-मरजाँ हरीफ़-ए-शाना हुआ

दिखाई चश्म-ए-ग़ज़ालाँ ने हल्क़ा-ए-ज़ंजीर

हमें तो गोशा-ए-सहरा भी क़ैद-ख़ाना हुआ

हमेशा शाम से हम-साए मर रहे 'आतिश'

हमारा नाला-ए-दिल गोश को फ़साना हुआ

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