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उन्नाब-ए-लब का अपने मज़ा कुछ न पूछिए - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

उन्नाब-ए-लब का अपने मज़ा कुछ न पूछिए

उन्नाब-ए-लब का अपने मज़ा कुछ न पूछिए

किस दर्द के हैं आप दवा कुछ न पूछिए

नाज़-ओ-नियाज़-ए-आशिक़-ओ-माशूक़ क्या कहूँ

इज्ज़ ओ ग़ुरूर शाह ओ गदा कुछ न पूछिए

ख़ुशबू से हो रहा है मोअत्तर दिमाग़ जान

चलती है किस तरफ़ की हवा कुछ न पूछिए

क्या क्या निगह फिसलती है रुख़्सार-ए-यार पर

कैसा ये आइना है सफ़ा कुछ न पूछिए

जामा से बाहर अपने जो हूँ मैं अजब नहीं

खोले हैं किस के बंद-ए-क़बा कुछ न पूछिए

आईना ले के कीजिए इतना मुशाहिदा

हम से सुलूक-ए-शर्म-ओ-हया कुछ न पूछिए

अल्लाह ने किया है किसे बादशाह-ए-हुस्न

सर पर है किस के ज़िल्ल-ए-हुमा कुछ न पूछिए

रंगीं किए हैं यार ने जैसे कि दस्त-ओ-पा

क्या रंग ला रही है हिना कुछ न पूछिए

ना-गुफ़्तनी है इश्क़-ए-बुताँ का मुआमला

हर हाल में है शुक्र-ए-ख़ुदा कुछ न पूछिए

क्या शय है वो कमर जो गुज़रता है ये ख़याल

आती है ग़ैब से ये सदा कुछ न पूछिए

कोताह ख़ाल-ए-रू-ए-मुनव्वर है किस क़दर

कितनी है ज़ुल्फ़-ए-यार रसा कुछ न पूछिए

'आतिश' गुनाह-ए-इश्क़ की ताज़ीर क्या कहूँ

मुशफ़िक़ जो कुछ है उस की सज़ा कुछ न पूछिए

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