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ताक़-ए-अबरू हैं पसंद-ए-तब्अ इक दिल-ख़्वाह के - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

ताक़-ए-अबरू हैं पसंद-ए-तब्अ इक दिल-ख़्वाह के

ताक़-ए-अबरू हैं पसंद-ए-तब्अ इक दिल-ख़्वाह के

उम्र होती है बसर गुम्बद में बिस्मिल्लाह के

जाऊँ क्यूँ-कर बिन बुलाए उस बुत-ए-दिल-ख़्वाह के

बे-तलब कोई नहीं पहुँचा हुज़ूर अल्लाह के

रू-ए-नूरानी का तेरे हो गया है शक जो यार

रात भर दौड़ा हूँ क्या क्या पीछे पीछे माह के

शाम-ए-वस्ल आई इधर मौजूद थी सुब्ह-ए-फ़िराक़

कम घड़ी से भी पहर हैं इस शब-ए-कोताह के

दाग़-ए-इश्क़-ए-हुस्न का लुक़्मा निवाला है कड़ा

सैर-दिल हैं खाने वाले इस ग़म-ए-जाँ-काह के

ना-तवानी से है हालत ग़ैर हिज्र-ए-यार में

दम निकल जाता है अपना साथ हर इक आह के

इश्क़-ए-बुत में कोह पर जा जा के सर पटका किए

पाँव को सदमे रहे पस्त-ओ-बुलंद-ए-राह के

सालहा इश्क़-ए-ज़नख़दाँ ने लहू पानी किया

मुद्दतों रोए हैं जा जा कर किनारे चाह के

हश्र तक यूँ ही रहेंगे ग़म्ज़ा-ओ-अंदाज़-ओ-नाज़

इश्क़-ए-आली-मंज़िलत से हुस्न-ए-वाला-जाह के

जा निकलता है जो मुझ सा तिश्ना-ए-दीदार-ए-हुस्न

ज़िक्र-ए-यूसुफ़ करने लगते हैं कबूतर चाह के

मंज़िल-ए-मक़्सूद में चल कर निकालूँगा उन्हें

आबलों में ये जो हैं पैवस्त काँटे राह के

उस बुत-ए-बे-दीं की ज़ुल्फ़ों का इशारा है यही

इस बला में वो फँसें आशिक़ हों जो अल्लाह के

कब समाई है नज़र में रौशनी-ए-आफ़्ताब

चश्म-ए-बीना रखते हैं ज़र्रे तिरी दरगाह के

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