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क़िस्सा-ए-सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ न कहना बेहतर - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

क़िस्सा-ए-सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ न कहना बेहतर

क़िस्सा-ए-सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ न कहना बेहतर

पेच-दर-पेच है ख़ामोश ही रहना बेहतर

ज़ब्त-ए-गिर्या से जला करती हैं आँखें सच है

बंद होने से है नासूर का बहना बेहतर

दोनों हाथों की तिरे यार करूँ क्या तारीफ़

बायाँ दहने से तो फिर बाएँ से दहना बेहतर

यार को देखेंगे पहना के शब-ए-मह में उसे

मिल गया कोई अगर फूलों का गहना बेहतर

नफ़्स-ए-अम्मारा सा रखता है ये सरकश दुश्मन

आदमी के लिए ग़ाफ़िल नहीं रहना बेहतर

टेढ़े सीधे से ग़रज़ रखते नहीं ऐ 'आतिश'

जो कहे यार हमें सुन के ये कहना बेहतर

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