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मय-ए-गुल-रंग से लबरेज़ रहें जाम सफ़ेद - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

मय-ए-गुल-रंग से लबरेज़ रहें जाम सफ़ेद

मय-ए-गुल-रंग से लबरेज़ रहें जाम सफ़ेद

चश्म-ए-बद-बीं को करे गर्दिश-ए-अय्याम सफ़ेद

बस-कि उस बुत की तबीअत है ज़माने से ख़िलाफ़

सुब्ह पोशाक सियह है तो सर-ए-शाम सफ़ेद

कौन सी शाम नहीं सुब्ह हुई ऐ मग़रूर

एक दिन होती है ये ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम सफ़ेद

क़तरा-ए-अश्क में सुर्ख़ी का कहीं नाम नहीं

लहू तेरा भी हुआ ऐ दिल-ए-नाकाम सफ़ेद

दिल की तस्कीं को मैं पैग़ाम सफ़ा का समझूँ

पुर्ज़ा काग़ज़ का जो भेजे वो गुल-अंदाम सफ़ेद

चाँदनी रात में वो माह जो याद आता है

काटने दौड़ते हैं मुझ को दर-ओ-बाम सफ़ेद

वस्ल की शब जो हुई सुब्ह यकायक तो हुआ

मैं इधर ज़र्द उधर रू-ए-दिलाराम सफ़ेद

निस्बत उस फ़ित्ना-ए-दौराँ से कोई अंधा दे

यार की आँख सियह दीदा-ए-बादाम सफ़ेद

किसी हालत में नहीं फ़िक्र से दुश्मन ग़ाफ़िल

आफ़त-ए-मुर्ग़ है रंगीन हो बादाम सफ़ेद

बस है इतनी ही ज़माना की दो-रंगी 'आतिश'

मय-ए-गुल-रंग से लबरेज़ रहें जाम सफ़ेद

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