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मगर उस को फ़रेब-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना आता है - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

मगर उस को फ़रेब-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना आता है

मगर उस को फ़रेब-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना आता है

उलटती हैं सफ़ें गर्दिश में जब पैमाना आता है

निहायत दिल को है मर्ग़ूब बोसा ख़ाल-ए-मुश्कीं का

दहन तक अपने कब तक देखिए ये दाना आता है

ख़ुशी से अपनी रुस्वाई गवारा हो नहीं सकती

गरेबाँ फाड़ता है तंग जब दीवाना आता है

फ़िराक़-ए-यार में दिल पर नहीं मालूम क्या गुज़री

जो अश्क आँखों में आता है सो बेताबाना आता है

बगूले की तरह किस किस ख़ुशी से ख़ाक उड़ाता हूँ

तलाश-ए-गंज में जो सामने वीराना आता है

समझते हैं मिरे दिल की वो क्या ना-फ़हम ओ नादाँ हैं

हुज़ूर-ए-शम'अ बे-मतलब नहीं परवाना आता है

तलब दुनिया को कर के ज़न-मुरीदी हो नहीं सकती

ख़याल-ए-आबरू-ए-हिम्मत-ए-मर्दाना आता है

हमेशा फ़िक्र से याँ आशिक़ाना शेर ढलते हैं

ज़बाँ को अपनी बस इक हुस्न का अफ़्साना आता है

तमाशा-गाह-ए-हस्ती में अदम का ध्यान है किस को

किसे इस अंजुमन में याद ख़ल्वत-ख़ाना आता है

सबा की तरह हर इक ग़ैरत-ए-गुल से हैं लग चलते

मोहब्बत है सरिश्त अपनी हमें याराना आता है

ज़ियारत होगी काबा की यही ताबीर है इस की

कई शब से हमारे ख़्वाब में बुत-ख़ाना आता है

ख़याल आया है आईना का मुँह उस में वो देखेंगे

अब उलझे बाल सुखाने की ख़ातिर शाना आता है

फँसा देता है मुर्ग़-ए-दिल को दाम-ए-ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ में

तुम्हारे ख़ाल-ए-रुख़ को भी फ़रेब-ए-दाना आता है

इताब ओ लुत्फ़ जो फ़रमाओ हर सूरत से राज़ी हैं

शिकायत से नहीं वाक़िफ़ हमें शुक्राना आता है

ख़ुदा का घर है बुत-ख़ाना हमारा दिल नहीं 'आतिश'

मक़ाम-ए-आश्ना है याँ नहीं बेगाना आता है

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