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लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़्गान-ए-तर सँभाले - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़्गान-ए-तर सँभाले

लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़्गान-ए-तर सँभाले

ये शाख़ वो नहीं जो बार-ए-समर सँभाले

दीवाना हो के कोई फाड़ा करे गरेबाँ

मुमकिन नहीं कि दामन वो बे-ख़बर सँभाले

तलवार खींच कर वो ख़ूँ-ख़्वार है ये कहता

मुँह पर जो खाते डरता हो वो सिपर सँभाले

तकिए में आदमी को लाज़िम कफ़न है रखना

बैठा रहे मुसाफ़िर रख़्त-ए-सफ़र सँभाले

यक दम न निभने देती उन की तुनक-मिज़ाजी

रखते न हम तबीअत अपनी अगर सँभाले

वो नख़्ल-ए-ख़ुश्क हूँ मैं इस गुलशन-ए-जहाँ में

फिरता है बाग़बाँ भी मुझ पर तबर सँभाले

हर गाम पर ख़ुशी से वारफ़्तगी सी होगी

लाना जवाब-ए-ख़त को ऐ नामा-बर सँभाले

या फिर कतर पर उस के सय्याद या छुरी फेर

बे-बाल-ओ-पर ने तेरे फिर बाल-ओ-पर सँभाले

दर्द-ए-फ़िराक़ 'आतिश' तड़पा रहा है हम को

इक हाथ दिल सँभाले है इक जिगर सँभाले

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