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कूचा-ए-दिलबर में मैं बुलबुल चमन में मस्त है - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

कूचा-ए-दिलबर में मैं बुलबुल चमन में मस्त है

कूचा-ए-दिलबर में मैं बुलबुल चमन में मस्त है

हर कोई याँ अपने अपने पैरहन में मस्त है

नश्शा-ए-दौलत से मुनइम पैरहन में मस्त है

मर्द-ए-मुफ़्लिस हालत-ए-रंज-ओ-मेहन में मस्त है

दौर-ए-गर्दूं है ख़ुदावंदा कि ये दौर-ए-शराब

देखता हूँ जिस को मैं उस अंजुमन में मस्त है

आज तक देखा नहीं इन आँखों ने रू-ए-ख़ुमार

कौन मुझ सा गुम्बद-ए-चर्ख़-ए-कुहन में मस्त है

गर्दिश-ए-चश्म-ए-ग़ज़ालाँ गर्दिश-ए-साग़र है याँ

ख़ुश रहें अहल-ए-वतन दीवाना-पन में मस्त है

है जो हैरान-ए-सफाए-रुख़ हलब में आईना

बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार से आहू ख़ुतन में मस्त है

ग़ाफ़िल ओ होश्यार हैं उस चश्म-ए-मय-गूँ के ख़राब

ज़िंदा ज़ेर-ए-पैरहन मुर्दा कफ़न में मस्त है

एक साग़र दो जहाँ के ग़म को करना है ग़लत

ऐ ख़ुशा-ताले जो शैख़-ओ-बरहमन में मस्त है

वहशत-ए-मजनूँ-ओ-'आतिश' में है बस इतना ही फ़र्क़

कोई बन में मस्त है कोई वतन में मस्त है

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