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ख़ार मतलूब जो होवे तो गुलिस्ताँ माँगूँ - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

ख़ार मतलूब जो होवे तो गुलिस्ताँ माँगूँ

ख़ार मतलूब जो होवे तो गुलिस्ताँ माँगूँ

बिजली गिरने को जो जी चाहे तो बाराँ माँगूँ

शम्अ गुल होवे जो सुब्ह-ए-शब-ए-हिज्राँ माँगूँ

ओस पड़नी भी हो मौक़ूफ़ जो याराँ माँगूँ

ख़ाक में भी जो मिलूँ मैं तो किसी सहरा में

तुम से मिट्टी भी न ऐ गब्र ओ मुसलमाँ माँगूँ

बख़्त-ए-वाज़ूँ ने ज़बाँ को ये असर बख़्शा है

तल्ख़ी-ए-मर्ग मज़ा दे जो नमकदाँ माँगूँ

ख़ाना-ए-दिल में करूँ दाग़-ए-मोहब्बत को तलब

रौशनी के लिए इस घर के जो मेहमाँ माँगूँ

पादशाही से फ़क़ीरी का है पाया बाला

बोरिया छोड़ के क्या तख़्त-ए-सुलैमाँ माँगूँ

रंज से इश्क़ के है राहत-ए-दुनिया बद-तर

ज़ख़्म-ए-ख़ंदाँ हूँ अगर मैं गुल-ए-ख़ंदाँ माँगूँ

दे दिया कीजिए सौदाई तुम्हारा हूँ मियाँ

सूँघने को जो कभी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ माँगूँ

आशिक़-ए-दस्त-ए-निगारीं हूँ अजब क्या इस का

भीक दरिया से अगर पंजा-ए-मर्जां माँगूँ

मेवे पर बाग़-ए-जहाँ में हो जो दिल को रग़बत

शजर-ए-हुस्न से मैं सेब-ए-ज़नख़दाँ माँगूँ

जामा-ए-जिस्म भी रखने का नहीं दस्त-ए-जुनूँ

पैरहन-ए-ख़ाक में दीवाना-ए-उर्यां माँगूँ

यास-ओ-हिरमाँ हूँ जो लोहे के चने भी तो चबाऊँ

नेमत-ए-इश्क़ के क़ाबिल लब-ओ-दंदाँ माँगूँ

मिलती हो माँगने से बाग़-ए-जहाँ में जो मुराद

गुल से बुलबुल के कफ़न के लिए दामाँ माँगूँ

कब से दर पर तिरे साइल हूँ मैं 'आतिश' की तरह

वो मिले मुझ को जो कुछ ऐ शह-ए-ख़ूबाँ माँगूँ

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