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जाँ-बख़्श लब के इश्क़ में ईज़ा उठाइए - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

जाँ-बख़्श लब के इश्क़ में ईज़ा उठाइए

जाँ-बख़्श लब के इश्क़ में ईज़ा उठाइए

बीमार हो के नाज़-ए-मसीहा उठाइए

क़ुदसी निगाह-ए-लुत्फ़ के उम्मीद-वार हैं

आँखें तो सू-ए-आलम-ए-बाला उठाइए

अब के बहार में जो हमें ले चले जुनूँ

चुन चुन के दाग़-ए-लाला-ए-सहरा उठाइए

ख़ामा से काम लीजिए हंगाम-ए-फ़िक्र-ए-शेर

मैदान-ए-कार-ज़ार में घोड़ा उठाइए

दिखलाए हुस्न-ए-यार का जल्वा हमें जो इश्क़

किस किस तरह से लुत्फ़-ए-तमाशा उठाइए

तुझ सा हसीं हो यार तो क्यूँ-कर न उस के फिर

नाज़-ए-बजा ओ ग़म्ज़ा-ए-बेजा उठाइए

मुफ़्लिस हूँ लाख पर यही दिल को बंधी है धुन

यूसुफ़ को क़र्ज़ ले के तक़ाज़ा उठाइए

फ़स्ल-ए-बहार आई पियो सूफ़ियो शराब

बस हो चुकी नमाज़ मुसल्ला उठाइए

जाम-ए-शराब-ए-नाब है साक़ी लिए खड़ा

गर्दन तो मिस्ल-ए-गर्दन-ए-मीना उठाइए

आवाज़ को सुना के किए कान मुस्तफ़ीज़

रहम आँखों पर भी कीजिए पर्दा उठाइए

जोश-ए-जुनूँ में देखिए पीछे न मुड़ के फिर

मुँह जिस तरफ़ को सूरत-ए-दरिया उठाइए

शमशीर-ज़न हो यार बहादुर जवान हो

'आतिश' जिहाद-ए-इश्क़ पे बेड़ा उठाइए

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