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इस शश-जिहत में ख़ूब तिरी जुस्तुजू करें - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

इस शश-जिहत में ख़ूब तिरी जुस्तुजू करें

इस शश-जिहत में ख़ूब तिरी जुस्तुजू करें

काबे में चल के सज्दा तुझे चार-सू करें

आशिक़ जो हुस्न-ए-पाक में कुछ गुफ़्तुगू करें

दामन का पीछे नाम लें पहले वज़ू करें

शर्मिंदा हूँ ज़मीं में गड़ें सुर्ख़-रू करें

उस्तादगी जो सर्व तिरे रू-ब-रू करें

पैदा करें जो तुझ को उन्हीं को है दस्तरस

पामर्द हैं वही जो तिरी जुस्तुजू करें

ले जा चुकी चमन में सबा बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार

सुम्बुल के सिलसिले को भी बरहम वो मू करें

अफ़्साना-गोई अफ़ई-ए-गेसू-ए-यार में

ख़ामोश हों चराग़ जो हम गुफ़्तुगू करें

दीवानगी का सिलसिला जावे न हाथ से

दामन को फाड़िए जो गरेबाँ रफ़ू करें

ऐ बादशाह-ए-हुस्न फ़क़ीरों की तरह से

आशिक़ दुआ-ए-ख़ैर तुझे कू-ब-कू करें

दीदार-ए-आम कीजिए पर्दा उठाइए

ता-चंद बंदा-हा-ए-ख़ुदा आरज़ू करें

मस्ती में मुझ से बे-अदबी होगी यार से

मुझ को गुनाह-गार न जाम-ओ-सुबू करें

दीवान-ए-हुस्न में से हुइ है ये इंतिख़ाब

आशिक़-मिज़ाज सैर-ए-बयाज़-ए-गुलू करें

विर्द-ए-ज़बाँ है रोज़-ओ-शब इन की सना-ए-हुस्न

शायाँ है जिस क़दर कि ये शाएर ग़ुलू करें

लिख देते हैं हसीनों को हम ख़त्त-ए-बंदगी

मश्क़-ए-सितम को तर्क जो ये तुंद-ख़ू करें

हैरान-कार हूँ तिरे रुख़्सार-ए-साफ़ का

सकता हो आइना जो तिरे रू-ब-रू करें

मुर्ग़-ए-चमन हों ज़मज़मा-पैरा बहार आई

हंगामा गर्म शेफ़्ता-ए-रंग-ओ-बू करें

तासीर-दार लोग हैं अल्लाह के फ़क़ीर

संग-ए-सनम हों आब जो हम ज़िक्र-ए-हू करें

मौजूद गो कि तू है मगर चाहता है शौक़

आवारा हों तलाश तिरी चार सू करें

'आतिश' ये वो ज़मीं है कि जिस में ब-क़ौल-ए-'दर्द'

दिल ही नहीं रहा है जो कुछ आरज़ू करें

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