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इस के कूचे में मसीहा हर सहर जाता रहा - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

इस के कूचे में मसीहा हर सहर जाता रहा

इस के कूचे में मसीहा हर सहर जाता रहा

बे-अजल वाँ एक दो हर रात मर जाता रहा

कू-ए-जानाँ में भी अब इस का पता मिलता नहीं

दिल मिरा घबरा के क्या जाने किधर जाता रहा

जानिब-ए-कोहसार जा निकला जो मैं तो कोहकन

अपना तेशा मेरे सर से मार कर जाता रहा

ने कशिश माशूक़ में पाता हूँ नय आशिक़ में जज़्ब

क्या बला आई मोहब्बत का असर जाता रहा

वाह-रे अंधेर बहर-ए-रौशनी-ए-शहर-ए-मिस्र

दीदा-ए-याक़ूब से नूर-ए-नज़र जाता रहा

नश्शा ही में या इलाही मय-कशों को मौत दे

क्या गुहर की क़द्र जब आब-ए-गुहर जाता रहा

इक न इक मूनिस की फ़ुर्क़त का फ़लक ने ग़म दिया

दर्द-ए-दिल पैदा हुआ दर्द-ए-जिगर जाता रहा

हुस्न खो कर आश्ना हम से हुआ वो नौनिहाल

पहुँचे तब ज़ेर-ए-शजर हम जब समर जाता रहा

रंज-ए-दुनिया से फ़राग़ ईज़ा-दहिंदों को नहीं

कब तप-ए-शीर उतरी किस दिन दर्द-ए-सर जाता रहा

फ़ातिहा पढ़ने को आए क़ब्र-ए-'आतिश' पर न यार

दो ही दिन में पास-ए-उल्फ़त इस क़दर जाता रहा

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