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ग़ैरत-ए-महर रश्क-ए-माह हो तुम - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

ग़ैरत-ए-महर रश्क-ए-माह हो तुम

ग़ैरत-ए-महर रश्क-ए-माह हो तुम

ख़ूबसूरत हो बादशाह हो तुम

जिस ने देखा तुम्हें वो मर ही गया

हुस्न से तेग़-ए-बे-पनाह हो तुम

क्यूँ-कर आँखें न हम को दिखलाओ

कैसे ख़ुश-चश्म ख़ुश-निगाह हो तुम

हुस्न में आप के है शान-ए-ख़ुदा

इश्क़-बाज़ों के सज्दा-गाह हो तुम

हर लिबास आप को है ज़ेबिंदा

जामा-ज़ेबों के बादशाह हो तुम

फ़ौक़ है सारे ख़ुश-जमालों पर

वो सितारे जो हैं तो माह हो तुम

हम से पर्दा वही हिजाब का है

कूचा-गर्दों से रू-बराह हो तुम

क्यूँ मोहब्बत बढ़ाई थी तुम से

हम गुनाहगार बे-गुनाह हो तुम

जो कि हक़्क़-ए-वफ़ा बजा लाए

शाहिद अल्लाह है गवाह हो तुम

है तुम्हारा ख़याल पेश-ए-नज़र

जिस तरफ़ जाएँ सद्द-ए-राह हो तुम

दोनों बंदे उसी के हैं 'आतिश'

ख़्वाह हम उस में होवें ख़्वाह हो तुम

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