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दिल की कुदूरतें अगर इंसाँ से दूर हों - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

दिल की कुदूरतें अगर इंसाँ से दूर हों

दिल की कुदूरतें अगर इंसाँ से दूर हों

सारे निफ़ाक़ गब्र ओ मुसलमाँ से दूर हों

नज़दीक आ चुकी है सवारी बहार की

बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-रसीदा गुलिस्ताँ से दूर हों

दिल इस क़दर गुदाज़ है बरसों ही ग़म रहे

आँसू जो अपने दीदा-ए-गिर्यां से दूर हों

मिटता नहीं नविश्ता-ए-क़िस्मत किसी तरह

जौहर कभी न ख़ंजर-ए-बुर्राँ से दूर हों

फ़स्ल-ए-बहार आई है कपड़ों को फाड़िए

दिल के बुख़ार दस्त-ओ-गरेबाँ से दूर हों

छिड़काव का इरादा है चश्म-ए-पुर-आब का

गर्द-ओ-ग़ुबार कूचा-ए-जानाँ से दूर हों

ये तंग कर रहा है तो उलझा रहे हैं वो

दामन के पाट पहले गरेबाँ से दूर हों

वहश ओ तुयूर को मिरी आहें करें हलाक

आब-ओ-गियाह कोह-ओ-बयाबाँ से दूर हों

मुमकिन नहीं नजात असीरान-ए-इश्क़ को

ये क़ैदी वो नहीं कि जो ज़िंदाँ से दूर हों

मुद्दत के ब'अद आए हैं सहरा में ऐ जुनूँ

दो आबले तो ख़ार-ए-मुग़ीलाँ से दूर हों

गर्दिश से चश्म-ए-यार के 'आतिश' अजब नहीं

जो जो अमल कि गर्दिश-ए-दौराँ से दूर हों

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