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बर्क़ को उस पर अबस गिरने की हैं तय्यारियाँ - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

बर्क़ को उस पर अबस गिरने की हैं तय्यारियाँ

बर्क़ को उस पर अबस गिरने की हैं तय्यारियाँ

बर्ग-ए-गुल ही आशियाँ को अपने है चिंगारियाँ

अहद-ए-तिफ़्ली में भी था मैं बस-कि सौदाई-मिज़ाज

बेड़ियाँ मिन्नत की भी पहनीं तो मैं ने भारीयाँ

मौत के आते ही हम को ख़ुद-बख़ुद नींद आ गई

क्या उसी की याद में करते थे शब-बेदारियाँ

ऐ ख़त उस के गोरे गालों पर ये तू ने क्या किया

चाँदनी रातें यकायक हो गईं अँधयारीयाँ

ख़ंदा-ए-गुल से सदा-ए-नाला आती है मुझे

ख़ून-ए-बुलबुल से मगर सींची गई हैं क्यारियाँ

ख़ाक का पुतला भी आहन से है सख़्ती में फ़ुज़ूँ

जिस्म पर इंसाँ के तलवारें हुई हैं आरियाँ

ख़ौफ़-ए-ख़ालिक़ है वगर्ना मोहतसिब क्या माल है

ख़ाना-ए-क़ाज़ी में जा कर कीजिए मय-ख़्वारियाँ

कुछ हमीं ख़ाली नहीं करते हैं ये दैर-ए-ख़राब

फिर गए हैं यार यूँही अपनी अपनी बारियाँ

हुक्म कर 'आतिश' कि बाज़ार-ए-मोहब्बत बंद हो

अब करें टटपूजिए गर्म अपनी दूकाँ-दारियाँ

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