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ऐ जुनूँ होते हैं सहरा पर उतारे शहर से - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

ऐ जुनूँ होते हैं सहरा पर उतारे शहर से

ऐ जुनूँ होते हैं सहरा पर उतारे शहर से

फ़स्ल-ए-गुल आई कि दीवाने सिधारे शहर से

ख़ूब रोए हाल पर अपने वतन का सुन के हाल

कोई ग़ुर्बत में जो आ निकला हमारे शहर से

जान दूँगा मैं असीर ऐ दोस्तो चुपके रहो

ज़िक्र क्या उस का कि दीवाना सुधारे शहर से

मौसम-ए-गुल में रहा ज़िंदाँ में और आई न मौत

सामने होती नहीं है आँख सारे शहर से

जोश-ए-वहशत में जो ली ज़िंदाँ से मैं ने राह-ए-दश्त

कूद-काँ मुझ को ख़ुदा-हाफ़िज़ पुकारे शहर से

पाँव में मजनूँ के तो ताक़त नहीं ऐ कूदको

मौसम-ए-गुल की हुआ तुम को उभारे शहर से

इक नज़र लिल्लाह हम को सूरत-ए-ज़ेबा दिखाओ

तिश्ना-ए-दीदार जाते हैं तुम्हारे शहर से

दश्त-गर्दी की नहीं दीवाने को कुछ एहतियाज

जामे से बाहर जो है बाहर है सारे शहर से

ऊँट सी लगती है दिल जंगल से होता है उचाट

संग-ए-तिफ़्लाँ करते हैं मुझ को इशारे शहर से

लाश-ए-वहशत से नहीं पहुँचा मैं सहरा तक हनूज़

जाने वाले गोर के पहुँचे किनारे शहर से

मौसम-ए-गुल आई निय्यत सेर दीवानों की हो

मेवा-ए-सहराई पर हैं मुँह पसारे शहर से

अब तो आज़ुर्दा है तू लेकिन मलेगा हाथ फिर

जिस घड़ी 'आतिश' निकल जावेगा प्यारे शहर से

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