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आरिफ़ है वो जो हुस्न का जूया जहाँ में है - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

आरिफ़ है वो जो हुस्न का जूया जहाँ में है

आरिफ़ है वो जो हुस्न का जूया जहाँ में है

बाहर नहीं है यूसुफ़ इसी कारवाँ में है

पीरी में शुग़्ल-ए-मय है जवानाना रोज़-ओ-शब

बू-ए-बहार आती हमारी ख़िज़ाँ में है

होता है गुल के सूँघे से दूना गिरफ़्ता दिल

मुझ सा भी बद-दिमाग़ कम इस बोस्ताँ में है

पुश्त-ए-ख़मीदा देख के होता हूँ नारा-ज़न

करता हूँ सर्फ़-ए-तीर जो ज़ोर इस कमाँ में है

दिखला रही है दिल की सफ़ा दो-जहाँ की सैर

क्या आईना लगा हुआ अपने मकाँ में है

दीवाना जो न इश्क़ से हो आदमी नहीं

हुस्न-ए-परी का जल्वा तिलिस्म-ए-जहाँ में है

परवानों की तरह है हुजूम-ए-क़दह-कशाँ

रौशन चराग़-ए-बादा जो मुग़ की दुकाँ में है

उस दिलरुबा के कूचे में आगे हवा से जाए

इतनी तो जान अब भी तन-ए-ना-तवाँ में है

दुनिया से कूच करना है इक रोज़ रहरवो

बाँग-ए-जरस से शोर यही कारवाँ में है

पढ़ सकता सरनविश्त का मतलब कोई नहीं

मालूम कुछ नहीं कि ये ख़त किस ज़बाँ में है

आइंदा-ओ-रविंदा की चलती हैं ठोकरें

जादा जो अपना था उसी ख़्वाब-ए-गिराँ में है

कुश्ते हैं बाग़ में भी तिरी तेग़-ए-नाज़ के

बू-ए-शहीद लाला में और अर्ग़वाँ में है

आशिक़ के रंग-ए-ज़र्द को देखो तो हँस पड़ो

तासीर उस में भी है वो जो ज़ाफ़राँ में है

मादूम वो कमर है न मौहूम वो दहन

कहते हैं शाएर उन के जो कुछ कुछ गुमाँ में है

गुल टूटते हैं होते हैं बुलबुल असीर-ए-दाम

सय्याद मुस्तइद मदद-ए-बाग़बाँ में है

सरकश की मंज़िलत है सुबुक पेश-ए-ख़ाकसार

वो तमकनत ज़मीं की कहाँ आसमाँ में है

सुम्बुल से हाल-ए-गुल हूँ मैं ये कह के पूछता

किस सिलसिले में तू है ये किस ख़ानदाँ में है

दिल में ख़याल-ए-गेसू-ए-मुश्कीं है बद बला

ये मुर्ग़-ए-रूह के लिए साँप आशियाँ में है

हिकमत से है ये ख़ाक का पुतला बना हुआ

नूर आँख में है उस के तो मग़्ज़ उस्तुख़्वाँ में है

'आतिश' बुलंद-पाया है दरगाह यार की

हफ़तुम फ़लक की रिफ़अत इसी आस्ताँ में है

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