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आख़िर-ए-कार चले तीर की रफ़्तार क़दम - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

आख़िर-ए-कार चले तीर की रफ़्तार क़दम

आख़िर-ए-कार चले तीर की रफ़्तार क़दम

ग़ैर मंज़िल न पड़े राह में ज़िन्हार क़दम

उठ गए वस्ल की शब पेशतर-अज़-यार क़दम

आगे हम उम्र-ए-रवाँ से भी चले चार क़दम

कू-ए-मक़्सूद से यूँ रखती है ग़फ़लत मुझे दूर

जैसे सो जाने से हो जाते हैं बे-कार क़दम

अहल-ए-आलम में हूँ मैं ज़िंदों में मुर्दों की तरह

बढ़ चलें लाख मगर साथ हैं दो चार क़दम

एक मुद्दत से रह-ए-काबा में आवारा हैं

क्या ख़ुदा का मुझे दिखलाएँगे दीदार क़दम

जोश-ए-वहशत में भी मैं चढ़ के न उस पर दौड़ा

ले गए हसरत-ए-ख़ार-ए-सर-ए-दीवार क़दम

सूरत-ए-बर्ग-ए-ख़िज़ाँ झड़ते हैं हर गाम गुनाह

जब उठाते हैं तिरी राह में ज़व्वार क़दम

ऐ जुनूँ कोह-ए-बयाबान भी दिखला मुझ को

रहें पस्ती ओ बुलंदी से ख़बर-दार क़दम

कूचा-गर्दी ये शब-ओ-रोज़ की बे-वज्ह नहीं

एड़ियाँ रगड़ेंगे किस के पस-ए-दीवार क़दम

जादा-ए-राह-ए-मोहब्बत को ख़त-ए-मुस्तर जान

सर के बल मिस्ल-ए-क़दम चल जो हों बे-कार क़दम

ख़ाक भी हूँ तो हूँ ख़ाक-ए-दर उस का 'आतिश'

जिस के थे दोश-ए-पयम्बर के सज़ा-वार क़दम

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