आख़िर-ए-कार चले तीर की रफ़्तार क़दम
आख़िर-ए-कार चले तीर की रफ़्तार क़दम
ग़ैर मंज़िल न पड़े राह में ज़िन्हार क़दम
उठ गए वस्ल की शब पेशतर-अज़-यार क़दम
आगे हम उम्र-ए-रवाँ से भी चले चार क़दम
कू-ए-मक़्सूद से यूँ रखती है ग़फ़लत मुझे दूर
जैसे सो जाने से हो जाते हैं बे-कार क़दम
अहल-ए-आलम में हूँ मैं ज़िंदों में मुर्दों की तरह
बढ़ चलें लाख मगर साथ हैं दो चार क़दम
एक मुद्दत से रह-ए-काबा में आवारा हैं
क्या ख़ुदा का मुझे दिखलाएँगे दीदार क़दम
जोश-ए-वहशत में भी मैं चढ़ के न उस पर दौड़ा
ले गए हसरत-ए-ख़ार-ए-सर-ए-दीवार क़दम
सूरत-ए-बर्ग-ए-ख़िज़ाँ झड़ते हैं हर गाम गुनाह
जब उठाते हैं तिरी राह में ज़व्वार क़दम
ऐ जुनूँ कोह-ए-बयाबान भी दिखला मुझ को
रहें पस्ती ओ बुलंदी से ख़बर-दार क़दम
कूचा-गर्दी ये शब-ओ-रोज़ की बे-वज्ह नहीं
एड़ियाँ रगड़ेंगे किस के पस-ए-दीवार क़दम
जादा-ए-राह-ए-मोहब्बत को ख़त-ए-मुस्तर जान
सर के बल मिस्ल-ए-क़दम चल जो हों बे-कार क़दम
ख़ाक भी हूँ तो हूँ ख़ाक-ए-दर उस का 'आतिश'
जिस के थे दोश-ए-पयम्बर के सज़ा-वार क़दम
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