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आबले पावँ के क्या तू ने हमारे तोड़े - हैदर अली आतिश कविता - Darsaal

आबले पावँ के क्या तू ने हमारे तोड़े

आबले पावँ के क्या तू ने हमारे तोड़े

ख़ार-ए-सहरा-ए-जुनूँ अर्श के तारे तोड़े

ज़क़न ओ रुख़ में न जासूसों से बाक़ी रक्खी

समर-ए-गुल चमन-ए-हुस्न के सारे तोड़े

सिलसिला अपनी गिरफ़्तारी का कब क़त्अ हुआ

पहनी पाज़ेब उन्हों ने जो उतारे तोड़े

मस्त मुझ सा भी कोई नश्शा का होगा न हरीस

पी के मय जाम के दाँतों से किनारे तोड़े

शर्बत-ए-वस्ल है तन्क़ीद की ख़ातिर मौजूद

तप-ए-हिज्र आ के बदन को न हमारे तोड़े

ख़त्म दुज़्दीदा निगह पर है तिरी तर्रारी

दिल नहीं तोड़े अहिब्बा के पिटारे तोड़े

आ गया वो शजर-ए-हुस्न नज़र जब हम को

बोसा ले कर लब-ए-शीरीं के छुवारे तोड़े

इश्क़ बे-दर्द से करने को कहा था किस ने

सर को टकरा के न दिल दर्द के मारे तोड़े

कुंज-ए-उज़्लत में बिठाया है ख़ुदा ने 'आतिश'

अब जो तुम याँ से हिले पावँ तुम्हारे तोड़े

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