सिमटा तिरा ख़याल तो गुल-रंग अश्क था
फैला तो मिस्ल-ए-दश्त-ए-वफ़ा फैलता गया
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शरर-अफ़शाँ वो शरर-ख़ू भी नहीं
वो जो तेरी तलब में ईज़ा थी
इक नया कर्ब मिरे दिल में जनम लेता है
इक दर्द सा पहलू में मचलता है सर-ए-शाम
पत्थर में फ़न के फूल खिला कर चला गया
लफ़्ज़ से जब न उठा बार-ए-ख़याल
ये दिल है मिरा या किसी कुटिया का दिया है